मेरी नज़र से देखो...
गर सहज़ लगती है
स्त्री की जिंदगी तो
मेरी नजर से देखो
सब कुछ होते हुए भी
मोहताज है
दिनभर काम करते हुए भी
बेकार है
अपना सब कुछ देकर भी
निकम्मी और लाचार है
कहते है बराबर का सम्मान है
पर घड़ी-घड़ी नज़रों की शिकार है
कौन कहता है समय बदल गया है
आप ये बताओ ...दहेज देने का
चलन खत्म हो गया है
सब नज़रों का भ्रम है
क्योंकि आज भी बाहर के साथ
घर देखना उनका ही कर्तव्य है . . . . 2