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ग्लानि [यात्रा संस्मरण]- रचना सागर


बात कुछ वर्षों पहले की है , जब जन-जीवन सामान्य चल रहा था। उस समय सभी अपनी अपनी दिनचर्या में व्यस्त और मस्त थे । आज लोगों का विश्वास अच्छाई और भलाई पर से उठता सा जा रहा है। मेरी यह यात्रा वृतांत आज के जमाने में भी छिपी अच्छाई और इंसानियत से है।
यह वाक्या कुछ उस समय का है जब बस सड़को पर दौड़ लगाती थी और बस की दो सीटो पर चार- पांच यात्री यात्रा करते नजर आते थे। मुझे मेरी बच्चों के साथ अचानक ही घर जाने का कार्यक्रम बन गया। ट्रेन की टिकट तो हमने तत्काल बुक करा ली पर बस की टिकट की कुछ व्यवस्था नहीं हो पाई। दूसरा इत्तेफाक यह हुआ कि यह यात्रा हमें अकेले करनी थी मतलब पतिदेव इस यात्रा में शामिल ना हो पाए। फिर क्या था एक परिचित सज्जन (जो हमारे जाने वाले थे) उन्हें हमें ट्रेन तक चढ़ाने की जिम्मेदारी दी गई यह यात्रा हमें डलहौजी से पठानकोट तक बस में करनी थी,जहां वैसे भी गिनी चुनी बसे ही चलती है। सामान के नाम पर मेरे साथ एक बड़ा सा ट्रॉली बैग और एक पर्स था। चूँकि बस यात्रा के दौरान हमारी टिकट कंफर्म नहीं हो पाई थी तो जैसे तैसे हमें बस तो मिल गई पर बस में सीटें पहले से बुक होने के कारण हमारे सीट की व्यवस्था नहीं हो पाई । जैसे -तैसे ,लपकते- लटकते हम बस में यात्रा कर ही रहे थे कि अचानक उस सज्जन पुरुष (जो हमें ट्रेन तक छोड़ने वाले थे) हमें एक सीट की ओर इशारा करते हुए कहा यहां ,"आप बच्चों के साथ बैठ जाओ। " मैंने जैसे-तैसे उस सीट पर बच्चों के साथ बैठते ...इशारा किया कि आप कहां बैठेंगे उन्होंने मेरी ट्रॉली बैग की ओर इशारा करते हुए कहा ... मैं इस पर बैठ जाऊंगा। मैंने भी सहमति से सिर हिला दिया। चूंकि डलहौजी से पठानकोट का सफर करीब तीन से चार घंटे का होता है और रास्ते भी बहुत अच्छी हालत में नहीं है, टॉली बैग मेरा बड़ा था रास्ता लम्बा ,.... ये सोच कर मै उनको बैग पर बैठने से मना न कर पाई और इंसानियत दिखाई ।
इस घटना में मोड़ तब आता है जब एक , दूसरा व्यक्ति जिसे मैं जानती भी न थी वो मेरे टॉली बैग पर आकर चुपचाप बैठ जाता है । मैं अपने साथ के सज्जन पुरुष की ओर इशारा करती हूँ.... कि ये क्यूं मेरे बैग पर बैठ रहा है , उन्होंने इशारे में कहा जाने दो... बैठने दो।
उनके इतना कहते ही मेरी आवाज़ निकल पड़ी.... भईया ये मेरी ट्रॉली बैग है , आप इस पर से उठ जाओ । वो मुझे अनुसुना कर वैसे ही बैठा रहा .... मै फिर से कहती हूँ .... भइया आप इस ट्रॉली बैग पर से उठ जाओ .... वो फिर भी उसी बैग पर थोड़ा हल्का होकर बैठ जाता है I मै फिर उस सज्जन पुरुष को कहती हूँ ट्रॉली टूट जाएंगी। आप दो व्यक्ति इस पर बैठे हो उसकी ओर से कोई प्रहिक्रिया नही होती है ...... मै वापस अनजान व्यक्ति से कहती हूँ... भइया मुझे आगे का सफर अकेले करना है यह ट्रॉली बैग मेरा टूट जाएगा मैं आगे कैसे इसको लेकर जाऊंगी ( एक लंबे स्वर में मैंने उसे कहा ) आप मेरे ट्रॉली बैग पर से उठ जाओ ,आप कहीं और जाकर बैठो I मेरे ट्रॉली बैग पर बैठ कर उसे तोड़ ही दोगे .......। मेरा इतना कहना था कि वह व्यक्ति ना जाने कहां चला गया मैंने सकून की सांस ली और अपनी यात्रा उस एक ही सीट पर बच्चों के साथ पूरी की I बस से उतरने के पश्चात मैंने बड़ी उत्सुकता से उस सज्जन पुरुष से पूछा वह अजनबी व्यक्ति कौन था ...जो जबरदस्ती मेरे ट्रॉली बैग पर बैठ गया था, मेरा तो ट्रॉली बैग ही टूट जाना था । अच्छा हुआ वह चला गया .... वो कहां चला गया? .... फिर नजर नहीं आया ...।
सज्जन पुरुष ने ठंडी सांस भरते हुए मुझे बताया कि तुम जिस सीट पर बैठी थी ... वह सीट उसी व्यक्ति (अजनबी )की थी | इतना सुनना था कि मेरा मन ग्लानि से भर गया । मैने कहां" तो फिर आपने पहले क्यों नहीं बताया। " उन्होंने कहा "मुझे ऐसे रास्ते में चक्कर बहुत आते है जिस वजह से मैं चुप था I" ये थी एक इंसानियत की मिसाल | उस यात्रा के बाद मेरे मन मे उस व्यक्ति के लिए क्षमा और धन्यवाद का बोध रह गया....... । मै आप या कोई कुछ छोटा भी अच्छा काम करते है तो हमे लाइक और कमेन्ट ,शाबसी , मेडल का इंतजार होता है पर कुछ अनजाने से फरिश्ते मौके पर अपनी अच्छाई दिखाकर ना जाने कहां चले जाते हैं और इस तरह यह वाक्या में दिलो जहन में बस गया... जो मैं आप सभी के साथ सांझा कर रही हूं ताकि आज उम्मीद छोड़ते लोग यह जान सके कि अच्छाई अब भी जिंदा है.... जहां लोगो मे स्वार्थ है वहाँ परमार्थ भी है।